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पुण्यहीन पर पशुपाल की कथा
तब जयदेव ने विचार किया कि-तो भले ही यह रत्न इस का भला करे, परन्तु अफल रहे सो ठाक नहीं, इस प्रकार करुणावान् होकर वह श्रेष्ठि पुत्र उस पशुपाल से कहने लगा कि---
हे भद्र ! जो तू यह चिंतामणि मुझे नहीं देता तो अब तू ही इसको आराधना करना कि जिससे तू जो चितवन करेगा वह यह देगी। __ पशुपाल बोला कि-भला, जो यह चिंतामणि है यह बात सत्य हो तो मैं चिंतवन करता हूं कि यह मुके शीघ्र बेर, केर, कचुम्बर आदि फल देवे।
तब श्रेष्ठि पुत्र हँसकर बोला कि--ऐसा नहीं चितवन किया जाता, किन्तु (इसको तो यह विधि है कि-) तीन उपवास कर अंतिम रात्रि के प्रथम प्रहर में लोपो हुई जमीन पर---
पवित्र बाजोट पर वस्त्र बिछा उस पर इस मणी को स्नान कराके चन्दन से चर्चित करके स्थापित करना, पश्चात् कपूर तथा पुष्प आदि से उसको पूजा करके विधि पूर्वक उसको नमस्कार
करना।
__ तदनन्तर जो कुछ अपने को इष्ट हो उसका चितवन करना ताकि प्रातः काल में वह सब मिलता है, यह सुनकर वह पशुपाल मूर्ख होते भी अपने छालिआ-बकरीयों वाले ग्राम की ओर चला । ___ होनपुण्य के हाथ में वास्तव में (यह) मणिरत्न रहेगा नहीं
ऐसा विचार कर श्रेष्ठ पुत्र ने भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। ___मार्ग चलते पशुपाल कहने लगा कि--हे मणि ! अब इन बकरियों को बेवकर चन्दन, कपूर आदि खरोद कर (मैं) तेरो पूजा करूंगा।
अतएव मेरे मनोरथ पूर्ण करके तू भी जगत् में अपना नाम