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कृतज्ञता गुण पर
हे मित्र ! यह चक्र -अंकुश-कमल और कलश से शोभती हुई जिनके पग की पंक्ति दीखती है । वे निश्चय विद्याधरेश होना चाहिये। बाद अति कौतुक से उन्होंने आगे जाकर लतागृह के किनारे बैठे हुए परम रूपवान जोड़े को देखा । इतने में वहां लतागृह के ऊपर नंगी तलवार हाथ में धारण किये हुए व मार मार करते दो पुरुष आये। उनमें से एक ने कहा किअरे निर्लज्ज ! तू अब वीर होकर सन्मुख आ और तेरे इष्टदेव का स्मरण कर तथा इस दीखतो हुई दुनियां को बराबर देख ले।
यह सुन स्फुरित अत्यन्त कोप वश होठ. कचकचाता हुआ हाथ में तलवार लेकर उक्त लतागृहस्थित विद्याधर बाहर निकला । पश्चात् उन दोनों का आकाश में अति भयंकर युद्ध हुआ कि-जिसमें वे जो ललकार करते थे तथा तलवारों की जो खटखट होती थी उससे विद्याधरियां चमक उठती थी। ___ अब साथ में जो दूसरा पुरुष आया था । वह लतागृह में प्रवेश करने लगा, तो पहिले जोड़े में की स्त्री भयभीत होकर बाहर निकली । वह विमल को देखकर बोलो कि-हे पुरुषवर ! मुके बचा। तब वह बोला कि-हे सुभगिनी ! विश्वास रख, तुझे भय नहीं है। __इतने में विमल को पकड़ने के लिये वह विद्याधर आकाश मार्ग से आगे बढ़ा । किन्तु विमल के गुणों से संतुष्ट हुई वनदेवी ने उसे स्तंभित कर दिया व उक्त लड़ते हुए मनुष्य को भी जोड़े के मनुष्य ने जीत लिया तो वह भागने लगा। इससे जोड़े में के मनुष्य ने भी उसे बराबर जीतने के लिये उसका पीछा किया।
यह हाल उस स्तंभित हुए मनुष्य ने देखा। जिससे उसको वहां जाने की इच्छा हुई, तो देवी ने शीघ्र उसे छोड़ दिया । वह