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वर्णन
कृतज्ञता गुण
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हुए उपकार को भूले बिना जानता रहे वह कृतज्ञ कहलाता है । यह बात प्रतीत ही है जिससे उक्त गुण को फल के द्वारा कहते हैं ।
बहुमन्नइ धम्मगुरु परमुवयारि ति तत्तबुद्धीए । ततो गुणाण वुड्ढी गुणारिहो तेणिह कयन्न ॥ २६ ॥
मूल का अर्थ - कृतज्ञ पुरुष धर्मगुरु आदि को तत्त्वबुद्धि से परमोपकारी मानकर उनका बहुमान करता है । उससे गुणों की वृद्धि होती है । इसलिये कृतज्ञ ही अन्य गुणों के योग्य माना जाता है ।
टीका का अर्थ - बहुमानित करता है याने कि-गौरव से देखता है । धर्म गुरु को याने धर्मदाता आचार्यादिक को( वह इस प्रकार कि ) ये मेरे परमोपकारी हैं । इन्होंने अकारण मुझ पर वत्सल रह कर मुझे अतिघोर संसार रूप कुए में गिरते बचाया है। ऐसी तत्त्वबुद्धि से याने परमार्थ वाली मति से । वह इस परमागम के वाक्य को विचारता है कि हे आयुष्यमान श्रमणों ! तीन व्यक्तियों का प्रत्युपकार करना कठिन - माता पिता, स्वामी तथा धर्माचार्य का ।
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कोई पुरुष अपने माता पिता को प्रातः संध्या में ही शतपाक व सहस्रपाक तैल से अभ्यंगन करके सुगन्धित गंधोदक से उद्वर्त्तन कर, तीन पानी से स्नान करा, सर्वालंकार से श्रृंगार कराकर, पवित्र पात्र में परोसा हुआ अट्ठारह शाक सहित मनोज्ञ भोजन जिमाकर यावज्जीवन अपनी पीठ पर उठाता रहे तो भी माता पिता का बदला नहीं चुक सकता ।
अब जो वह पुरुष माता पिता को केवल भाषित धर्म