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भुवनतिलक कुमार की कथा
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रूप कनक के कनकाचल, नमे हुए के प्रति कल्पवृक्ष समान कुमार ! तू किस अवस्था को प्राप्त हुआ है ? पुत्रवत्सल राजा के समीप जाकर मैं क्या कहूँगा ? इस प्रकार वे सिद्धपुर के बाहर के उद्यान में विलाप करने लगे___ इतने में वहां सुरासुर से सेवित चरण वाले व अनेक श्रमणों के परिवार युक्त शरदभानु नामक प्रवरज्ञानी का आगमन हुआ। वे देवकृत कनक कमल पर बैठ कर धर्मोपदेश देने लगे । तब मंत्री आदि जन वहां जा, वन्दना करके बैठ गये । अब कंठीरव नामक सामन्त उनको कुमार का वृत्तांत पूछने लगा । तब उनको आकुल जानकर आचार्य संक्षेप में इस भांति कहने लगेः
धातकी खंड नामक द्वीप में भरतक्षेत्र में भवनाकर नगर में विचरते विचरते एक सुगुरु सहित साधुओं का गच्छ आया । उक्त गच्छ में एक वासव नामक साधु था । वह सद्वासना से रहित था । अपने गुरु व गच्छ का शत्रु था । अविनीत था और क्लिष्टचित्त था । एक समय गुरु ने उसको कहा कि- हे भद्र ! तू विनयी हो क्योंकि विनय ही से सकल कल्याण होता है। उक्तंच-विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषाफलं श्रु तज्ञानं ।
ज्ञानस्य फलं विरति-विरतिफलं चाऽऽश्रवनिरोधः ।। संवरफलं तपोबल-मथ तपसो निर्जरा फलं दृष्ट। तस्मात् क्रियानिवृत्तिः क्रिया निवृत्त रयोगित्वं ।। योगनिरोधाद्भवसंततिक्षयः संततिक्षयान्मोक्षः ।
तस्मात् कल्याणानां, सर्वेषां भाजन विनयः ।। तथा-मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुविंति साहा ।
साहप्पसाहावि रहति पत्ता, तओ सि पुष्पं च फलं रसो य ।।