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मध्यमबुद्धि की कथा
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किन्तु मनीषीकुमार तो उक्त मुनीश्वर से इस प्रकार विनंति करने लगा कि-हे भगवन् ! मुझे तो आप संसार समुद्र से तारने वाली दीक्षा ही दीजिये। ___ तब सूरि बोले कि-हे वत्स ! इसमें बिलकुल आलस्य मत कर । पश्चात् राजा विस्मित हो कर मनीषी को कहने लगा किकृपा करके मेरे गृह पर पधारिए और मुझे क्षणभर प्रसन्न करिए, कि जिससे हे महाभाग ! मैं आपका निष्क्रमणोत्सव करू।
तब राजा की अनुवृत्ति से वह राजमहल को गया । वहां राजा को आनंदित करता हुआ सात दिन तक रहा । आठवे दिन स्नान विलेपन कर, मुक्तालंकार पहिन जरी के किनार वाले वस्त्र धारण कर उत्तम रथ, कि जिसके ऊपर राजा सारथी होकर बैठा था। उस पर आरूढ़ हो, जंगम कल्पवृक्ष के समान उत्कृष्ट दान देता हुआ, दो चामरों से बिजायमान, श्वेत छत्र से शोभित, भाटचारणों के द्वारा दृढ़ प्रतिज्ञा के लिये प्रशंसित होता हुआ, और उसके अद्भुत गुणों से प्रसन्न होकर उसी समय आये हुए देवों से इन्द्र के समान स्तूयमान होता हुआ, वह कुमार बहुत से घुड़ सवार, हाथी सवार, पैदल, रथवान तथा अमात्य व मध्यम के साथ सूरि से पवित्र हुए उक्त स्थान में आ पहूँचा।
पश्चात रथ से उतर कर पातक से उतरा हो उस भांति पूर्वोक्त प्रमोदशेखर नामक चैत्य के द्वार पर क्षणभर खड़ा रहा। ___ इतने में राजा को भी मनीषी का चरित्र सम्यक् रीति से, निर्मल अन्तःकरण से विचारते हुए, चारित्र परिणाम उत्पन्न हुआ कि-जो धर्म रूप कल्पवृक्ष की वृद्धि करने के लिये मेघ समान है। इस भांति देखो! वृद्धानुगामित्व, प्राणियों के सकल मनोरथ पूर्ण करने के लिये कामधेनु समान होता है। ..