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पुण्यहीन पर पशुपाल की कथा
जैसे धनहीन मनुष्यों को चिन्तामणि रत्न मिलना सुलभ नहीं, वैसे हो गुगरूपो धन से रहित जात्रों को धर्मरत्न भी मिल नहीं
सकता ।
जैसे - जिस प्रकार से, परिचित चिन्तामणि रत्न, सुलभ याने सुख से प्राप्त हो सके वैसा नहीं याने नहीं ही होता, ( किसको ? ) थोड़े विभव वाले को अर्थात् यहां कारण में कार्य का उपचार किया हुआ होने से विभव शब्द से विभव का कारण पुण्य लेते थोड़े पुण्य वाले जो हो उनको उस प्रकार के अर्थात् पुण्यहोन पशुपाल की भांति ( इसकी बात आगे कही जावेगी. )
१०.
उसी प्रकार गुण अर्थात् आगे जिनका वर्णन किया जायगा वे अक्षुद्रता आदि, उनका जो विशेष करके भवन याने होना उनको कहना गुणविभव अथवा गुणरूपी विभव याने रिद्धि सो गुणविभव, उससे वर्जित याने रहित जोवों को अर्थात् पंचेन्द्रिय प्राणियों को, ( यहां जीव शब्द से पंचेन्द्रिय प्राणी लेना ) कहा भी है कि:-- प्राण अर्थात् द्वि. त्रिय. तथा चतुरिंद्रिय जानना, भूत याने तरु समभना, जोव याने पंचेन्द्रिय जानना | शेत्र पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, उनको सत्त्व कहा है ।
मूलगाथा के अन्त में लगाये हुए अधि शब्द का सम्बंध जीव शब्द के साथ करने का है, उससे यहां इस प्रकार परमार्थ योजना करना कि एकेन्द्रिय तथा विकतेद्रियों को तो मूल हो से धर्म प्राप्ति नहीं है, परन्तु पंचेन्द्रिय जीव भी जो यथा योग्यता के कारण जो गुण उनकी सामग्री से रहित होवें उनको उसी प्रकार धर्मरत्न मिलना सुलभ नहीं, चलती बात का सम्बंध है ।
पूर्ववर्णित पशुपाल का दृष्टान्त इस प्रकार है:
बहुत से विबुधजन ( देवताओं ) से युक्त, हरि ( इन्द्र ) से रक्षित, सैकड़ों अप्सराओं ( देवाङ्गनाओं ) से शोभित इन्द्रपुरी के