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मध्यम बुद्धि की कथा
समान अकुशलमाला नामक स्त्री थी। उन दोनों स्त्रियों के मनीषी
और बाल नामक दो पुत्र थे। वे परस्पर प्रीति युक्त हो एक समय शरीर रूपी उद्यान में बाल-क्रीड़ा करने को गये।
वहां उन्होंने एक मनुष्य को फांसी खाते देखा। तब बाल उसकी फांसी दूर कर उसे फांसी खाने का कारण पूछने लगा।
वह बोला कि- यह बात मत पूछो। यह कहकर वह पुनः फांसी खाने को तैयार हुआ। तब जैसे वैसे उसे रोक कर बाल उसे आदर से पूछने लगा, तो वह बोला कि- हे भद्र ! मेरा नाम स्पर्शन है । मेरा एक भवजन्तु नामक भित्र था । उसने कुछ समय हुआ सदागम के साथ मित्रता करी । तब से इसका मुझ पर से प्रेम टूट गया । वह स्त्री व पलंग को छोड़ कर दुष्कर तप करने लगा । महान् क्लेश सहने लगा । केश लुचन करने लगा। भूमि व काष्ट पर सोने लगा और सामान्य रूखा सूखा खाने लगा। वह स्फुरित ध्यान में चढ़ ज्ञान से भावनाओं को उत्तेजित कर, मुझे छोड़ कर मैं जहां नहीं जा सकता ऐसी निवृत्ति नामक पुरी में चला गया है। जिससे मित्र-वियोग के कारण मैं ऐसा करने लगा हूँ। यह सुन उसके ऐसे हड़ प्रेम से प्रसन्न होकर बाल बोला- मित्र पर वात्सल्य रखने वाले, दृढ़ प्रीतिशाली और परोपकार परायण तेरे समान व्यक्ति को ऐसा ही करना उचित है। क्योंकि मनस्वी पुरुषों को मित्र के विरह में क्षण भर भी रहना घटित नहीं होता । यह सोचकर ही देखो मित्र (सूर्य) का विरह होते ही दिवस भी अस्त हो जाता है। .... धन्य है ! तेरे मित्र वात्सल्य को, धन्य है तेरी स्थिरता को, धन्य है तेरी कृतज्ञता को और धन्य है तेरे दृढ़ साहस को ।