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सुबुद्धि मंत्री की कथा
मूल का अर्थ - विशेषज्ञ पुरुष अपक्षपात से वस्तुओं के गुणदोष जान सकता है । इसलिये प्रायः वैसा पुरुष ही उत्तम धर्म के योग्य है ।
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टीका का अर्थ - (विशेषज्ञ पुरुष) वस्तु याने सचेतन-अचेतन द्रव्य अथवा धर्म-अधर्म के हेतु उसके गुण और दोषों को अपक्षपात भाव से याने मध्यस्थ भाव से स्वस्थ चित्त रखकर पहिचानते हैं या जान सकते हैं। क्योंकि पक्षपाती पुरुष दोषों को गुण मानलेता है और गुणों को दोष मान लेता है और उसी प्रकार उनका समर्थन करता है ।
उक्त च
आग्रही बत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशं ॥
आग्रही मनुष्य जहां उसकी मति बैठी होती है वहीं युक्ति लगाने की इच्छा करता है, परन्तु निष्पक्षपाती मनुष्य की मति तो जहां युक्ति हो वहां लगती है । इससे प्रायः याने विशेषकर विशेषज्ञ याने सारेतरवेदी ही उत्तम धर्म को अर्ह याने प्रधान धर्म को योग्य होता है, सुबुद्धि मंत्री के समान ।
सुबुद्धि मंत्री की कथा इस प्रकार है:
यहां पूर्णभद्र नामक चैत्य से विभूषित चंपा नामक नगरी थी। वहां जितशत्रु नामक राजा था। वह चंद्र के समान सकल जनों को प्रिय था। उसकी मनोहर रूपवाली और शील से शोभित धारिणी नाम की रानी थी और उसका शत्रुओं को अति दीन करने वाला अदीनशत्रु नामक युवराज कुमार था । उस राजा का औत्पातिकी आदि चार प्रकार की निर्मल बुद्धि द्वारा बृहस्पति को जीते ऐसा और जीवाजीवादि पदार्थों के विस्तार