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धनश्रेष्ठी की कथा
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बहू के समान पांचों व्रतों को बढ़ाते रहते हैं । वे गणधर के समान संघ में प्रधान होते हैं तथा इस ज्ञात का व्यवहार सूत्र में दूसरा भी उपनय दीखता है । वह इस प्रकार है कि
किसी गुरु के चार शिष्य थे। वे सर्व व्रतपर्याय और श्रुत पाठ से आचार्य पद के योग्य हो गये थे। अब गुरु विचार करने लगे कि, यह गच्छ किसे सौंपना चाहिये । तब उसने उनकी परीक्षा करने के हेतु कौन कितनी सिद्धि करता है सो जानने के लिये उनको उचित परिवार देकर देशांतर में विहार करने को भेजे। ___ वे चारों क्षेमादि गुण वाले भिन्न भिन्न देशों में गये। उनमें जो सबसे बड़ा शिष्य था, वह सुखशील होकर कटु वचन बोलता तथा एकान्त से किसी को भी सहायता नहीं देता था । जिससे उसका सकल परिवार थोड़े ही समय में उद्विग्न हो गये।
दूसरा शिव्य भी रोगी रहकर परिवार से अपने शरीर को सुश्रूषा कराने लगा परन्तु उसने उनको वास्तविक क्रिया नहीं कराई।
तीसरे शिष्य ने उद्यमी हो सार सम्हाल लेकर परेवार को प्रमादी न होने दिया।
अब जो चौथा शिष्य था वह पृथ्वी भर में यश प्राप्त करने लगा क्योंकि-वह जिन सिद्धान्त रूप अमृत का घर होकर दुष्कर श्रमणत्व पालता था तथा अपनी विहार भूमी को अपने गुणों द्वारा मानो देवलोक से आकर बसी हों उतनी संतुष्ट करता था
और वह आर्य कालिकसूरि के समान देश काल का ज्ञाता व सुदीर्घदर्शी हो कर लोगों को बोधित करता हुआ भारी परिवार