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भद्रनन्दीकुमार की कथा
कुमार बोला: - यह शरीर अनेक आधि-व्याधिओं का घर है और जीर्ण घर के समान ( क्षणभंगुर ) है । वह अंत में अवश्य गिरने वाला ही है । अतः अभी ही दीक्षा लू तो ठीक ।
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माता पिता बोले:- तू इन कुलीन और लावण्य जल की नदियों के समान पांच सौ स्त्रियों को अनाथ कैसे छोड जावेगा ?
कुमार बोला:- विषय विषमिश्रित दूधपाक के समान हैं, व वे अशुचि से उत्पन्न होते हैं और अशुचिमय होकर दुःख रूपी वृक्ष के बीज भूत हैं । इसलिये कौन चैतन्य पुरुष उनका भोग करे ।
माता पिता बोले:- हे वत्स ! अपने वंश परंपरा से प्राप्त हुए पवित्र धन को तू भली-भांति दान भोग कर, फिर प्रव्रज्या ग्रहण
करना ।
कुमार बोला:- अग्नि जल आदि भी समान रीति ही से जिसका संहार कर सकते हैं। वैसे इस समुद्र की तरंग समान धन में कौन बुद्धिमान प्रतिबंध रखे ।
माता पिता बोले:- जैसे तलवार की तीक्ष्ण धार पर नंगे पैर चलना यह दुष्कर काम है । वैसे ही हे पुत्र ! व्रत पालना दुष्कर है और उसमें भी तेरे समान अति सुखी को तो वह विशेष करके दुष्कर है ।
कुमार बोला:- क्लीत्र ( पुरुषत्वहीन), कायर ( डरपोक ) और विषयों में तृषित रहने वाले को ये दुष्कर हैं, परन्तु परम उद्यमी को तो सब साध्य है ।
अब राजा ने उसका दृढ़ निश्चय देख उसे एक दिन तक राज्य पालने के लिये राज्याभिषेक कर पूछा कि - अब तुझे क्या ला दिया जाय ?