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यशोधर की कथा
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स्नान मद और दर्प का कारण होने से काम का प्रथम अंग कहा गया है । इसी से काम को त्याग करने वाले और इन्द्रियदमन-रत यतिजन बिलकुल स्नान नहीं करते।
आत्मारूप नदी है, उसमें संयमरूप पानी भरा हुआ है । वहां सत्य रूप प्रवाह है । शील रूप उसके किनारे हैं । व दया रूप तरंगें हैं। इसलिये हे पांडुपुत्र ! उसमें तू स्नान कर, कारण किअन्तरात्मा पानी से शुद्ध नहीं होती।
व्रत व नियम को अखंड रखने वाले, गुप्त गुप्त द्रिय, कषायों को जीतने वाले और निर्मल ब्रह्मचारी ऋषि सदैव पवित्र हैं । पानी से भिगोये हुए शरीर वाला नहाया हुआ नहीं कहलाता किन्तु जो दमितेन्द्रिय होकर अभ्यंतर व बाहर से पवित्र हो वहीं नहाया हुआ कहलाता है। ___ अंतर्गत दुष्ट चित्त तीर्थ स्थान से शुद्ध नहीं होता, क्योंकिमदिरा-पात्र सैकड़ों बार पानी से धोने पर भी अपवित्र ही रहता है। ___ सत्य पहिला शौच है, तप दूसरा है, इन्द्रिय निग्रह तीसरा शौच है, सर्व भूत की दया करना यह चौथा शौच है और पानी से धोना यह पांचवा शौच है । और आरंभ से निवृत तथा इस लोक व परलोक में अप्रतिबद्ध मुनि को सर्व शास्त्रों में भिक्षा से निर्वाह करना ही प्रशंसित किया गया है।
फेंक देने में आती होने पर भी पवित्र, सर्व पाप विनाशिनी माधुकरी वृत्ति करना, फिर भले ही मूर्खादि लोग उसकी निन्दा किया करें । प्रान्त (हलके ) कुलों में से भी माधुकरी वृत्ति ले लेना अच्छा, परन्तु बृहस्पति के समान पुरुष से भी एकानएक गृह का भोजन करना अच्छा नहीं।