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सुदाक्षिण्यता गुण पर
हे राजन् ! पाप कलंक रूप पंक को धोने के लिये जिनेश्वर प्रणीत प्रवचन के वाक्य और अनुष्ठान रूप पानी के अतिरिक्त अन्य कोई समर्थ नहीं । तब हृदयगत अभिप्राय कह देने से राजा अत्यन्त हर्षित हो, नेत्र में आनन्दा भर, मुनि को नमन करके विनंती करता है कि- हे भगवन् ! इस पाप का निवारण हो सके ऐसा क्या प्रायश्चित है ? मुनि बोले कि, निदान कर्म से दूर रहकर उसके प्रतिपक्ष की आ-सेवा करना ( यही इसका प्रायश्चित है)
यहां निदान यह है कि, यह पाप तू ने मिथ्यात्व से मिले हुए अज्ञान के कारण किया है। कारण कि अन्यथा स्थित भाव को अन्यथा रूप से ग्रहण काना मिथ्यात्व है।
हे राजा! तू ने श्रमण को देखकर अपशकुन हुआ ऐसा विचार किया और उसके कारण में हे भद्र ! तू ने यह विचार किया कि यह मलमलीन शरीर वाला, स्नान और शौचाचार से रहित तथा परगृह भिक्षा मांग कर जीने वाला है, इससे अपशकुन माना जाता है। परन्तु अब हे मालवपति ! तू क्षणभर मध्यस्थ होकर सुन- मल से मलीन रहना यह मलीनता का कारण नहीं।
. कहा है कि- मल से मलीन, कादव से मलीन और धूल से मलीन हुए मनुष्य मैले नहीं माने जाते, परन्तु जो पापरूप पंक से मैले हों वे हो इस जीवलोक में मलीन हैं। तथा स्नान में पानो से क्षणभर शरीर के बहिर्भाग को शुद्धि होती है, और वह कामांग माना जाता है, इसोसे महर्षियों को स्नान करना निषिद्ध है।