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यशोधर की कथा
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अमरचन्द्र राजा ने जिसमें उत्तम मन रखा जा सके ऐसा श्रमणत्व अंगीकृत किया । __ अब सुरेन्द्रदत्त भी सूर्य जैसे महीधर ( पर्वत ) में अपनी किरणें लगाता है वैसे महीधरों (राजाओं) से कर वसूल करता, तथा सूर्य जैसे कमलों को प्रकट करता है वैसे वह कमला (लक्ष्मी) को प्रकट करता तथा रिपु-रूप अंधकार को नाश करता हुआ पृथ्वी रूप सोंक को अति सुखी करने लगा। ___ अब एक दिन राजा की सारसिका नामक दासी ने पलित देखकर उसे कहा कि- धर्म का दूत आया है। तब राजा सर्व भावों के अस्थिरत्व साथ ही भव की तुच्छता तथा यौवन की चंचलता का चितवन करने लगा। वह विचारने लगा कि दिवस
और रात्रि रूप घटमाला से लोक का आयुष्य रूप जल लेकर चन्द्र और सूर्य रूपी बैल काल रूप रहट को घुमाया करते हैं। ___ जीवन-रूप जल के पूर्ण होते ही शरीर रूपी पाक सूख जायगा। उसमें कोई भी उपाय न चलने पर भी लोग पाप करते रहते हैं। इसलिये इस तरंग के समान क्षणभंगुर, अतितुच्छ और नरकपुर में जाने को सीधी नाक समान राज्य - लक्ष्मो से मुझे क्या प्रयोजन है। ___ इसलिये गुण रत्न के कुलघर समान गुणधरकुमार को अपने राज्य पर स्थापन करके पूर्व-पुरुषों द्वारा आचरित श्रमणत्व अंगीकार करू. ऐसा उसने विचार किया। जिससे राजा ने रानी को अपना अभिप्राय कहा, तो वह बोली कि-हे नाथ ! आपकी जो रुचि हो सो करिये. मैं उसमें विघ्न नहीं करती। किन्तु मैं भी आर्य पुत्र के साथ ही दीक्षा ग्रहण करूगी, कारण कि- चन्द्र के बिना उसकी चन्द्रिका किस प्रकार रह सकती है ?