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विजयकुमार की कथा
लगे कि- हे नरेन्द्र ! यह राज्यलक्ष्मी विद्युत् की भांति चपल है। साथ ही वह अभिमान मात्र सुख देने वाली है तथा स्वर्ग व मोक्ष मार्ग में विघ्न रूप है। तथा वह नरक के अति दुःसह दुःख की कारण है व धर्मरूप वृक्ष को जलाने के लिये अग्नि ज्वाला समान है । इसलिये ऐसी राज्यलक्ष्मी द्वारा कौन महामति पुरुष अपने को विडंबित करे।
पिता की उपार्जन की हुई लक्ष्मी बहिन होती है। स्वयं पैदा की हुई पुत्री मानी जाती है । पर लक्ष्मी पर-स्त्री मानी जाती है । अतएव उसे लज्जावान् पुरुष किस प्रकार भोगे।
यह जीवन पवन से हीलते हुए कमल के अग्र भाग पर स्थिर पानी की बिन्दु के समान चपल है । अतएव 'कल मैं धर्म करूंगा" ऐसा कौन चतुर व्यक्ति कहता है। इसलिये जिसकी मौत के साथ मित्रता हो अथवा जो उससे भाग जाने में, समर्थ हो वा जिसको यह विश्वास हो कि "मैं नहीं मरूगा" वही "कल करू गा" ऐसी इच्छा करे तथा जो जो रात्रि व्यतीत होती है वह पुनः नहीं लौटती । इसलिये अधर्मी की रात्रियां व्यर्थ जाती हैं। तथा कौन जानता है कि कब धर्म करने की सामग्री मिलेगी ? इसलिये रंक को जब धन मिले तभी काम का ऐसा विचार करके जब व्रत प्राप्त हो तभी पालना चाहिये।
यह सुनकर राजा का मोह नष्ट हुआ, जिससे उस को संवेग व विवेक प्राप्त हुआ, जिससे उसने कुमार मुनि से गृहि-धर्म अंगीकार किया।
पश्चात् वह भक्ति पूर्वक मुनि को नमन कर तथा खमाकर स्वस्थान को गया । तदनंतर दृढ़प्रतिज्ञ सदैव सदाचार में रहकर ब्रत पालने वाला वह साधु लज्जा तथा तप आदि से त्रिभुवन