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विजयकुमार की कथा
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- देवता बोला कि- वीरपुर नगर में जिनदास नामक .उत्तम श्रेष्ठी है । वह उसके गुरु-जन से शिक्षा पाया हुआ है और अति धर्मिष्ठ तथा निर्मल दृष्टि वाला है। उसका अति वल्लभ धन नामक एक मिथ्यादृष्टि मित्र है। उसने एक समय विषय सुख छोड़कर तापस की दीक्षा ली।
तब जिनदास विचारने लगा कि- ये क्षुद्र ज्ञानी भी जो इस प्रकार पाप से डरकर विष के समान विषयों का त्याग करते है तो भव के स्वरूप को समझने वाले और जिन-प्रवचन सुनने से जानने योग्य वस्तु को जानने वाले निर्मल विवेकवान हमारे सहश उन विषयों को क्यों न त्यागे ? ____यह सोचकर विनय पूर्वक विनयधर गुरु से व्रत ले, अनशन कर, मृत्यु के अनन्तर वह सौधर्म-देवलोक में देवता हुआ। उसने अवधिज्ञान से अपने मित्र को व्यंतर हुआ देखा, जिससे उसको प्रतिबोध देने के लिये अपनी समृद्धि उसे बताई।
, तब वह व्यन्तर सोचने लगा कि अहो ! मनुष्य जन्म पाकर उस समय मैंने जो जिन-धर्म आराधन किया होता तो मैं कैसा सुखो होता। - अरे जीव ! तूने कल्पवृक्ष के समान गुणवान गुरु की सेवा की होती तो भयंकर दारिद्र के समान यह नीच देवत्व नहीं पाता। .
अरे जीव ! जो तूने जिन प्रवचन रूप अमृत का पान किया होता तो महान अमर्षरूप विषवाली यह परवशता नहीं पाता ।
इत्यादि नाना प्रकार से शोक करके अपने मित्र देवता के वचन से उस भाग्यशाली व्यंतर ने मोक्ष रूप तर के बीज समान सम्यक्त्व को भली भांति प्राप्त किया।