________________
सुदाक्षिण्यता गुण पर
असमर्थ हो गये तथा भग्न परिणामी हो कर अपनी मां को संयम छोड़ कर भाग जाने का उपाय पूछने लगे । जिसे सुन यशोभद्रा मानों अकस्मात वज्र से आहत हुई हो, उस तरह दुःखार्त्त होकर गद्गद् स्वर से कहने लगी कि - हे वत्स ! तू ने यह क्या विचार किया है ?
199
९०
जो मेरू चलायमान हो जावे, समुद्र सूख जावे, सर्व दिशाएँ फिर जावे तो भी सत्पुरुषों का वचन व्यर्थ नहीं होता । शरद ऋतु के चन्द्र की किरणों के समान स्वच्छ शील वाले प्राणी को मरना अच्छा है, परन्तु शील खंडन करना अच्छा नहीं । शत्रुओं के घर भिक्षा मांगकर जीना अच्छा, अथवा अग्नि में गिर जलकर देह त्यागना अच्छा, अथवा ऊँचे पर्वत के शिखर पर से पापात करना अच्छा, परन्तु पंडित जनों ने शील भंग करना अच्छा नहीं माना ।
इस यौवन और आयुष्य को प्रचंड पवन से चलायमान होती हुई ध्वजा के समान चपल जानकर हे वत्स ! तू अकार्य में मन रखकर मत ऊकता । हे वत्स ! इन्द्र की समृद्धि त्याग कर दासत्व की इच्छा कौन करता है ? अथवा चिंतामणि को छोड़कर कांच कौन ग्रहण करता है । हे पुत्र ! इन्द्रत्व, अहमिन्द्रत्व, महानरेन्द्रत्व तथा असुरेन्द्रत्व प्राप्त होना सुलभ है, परन्तु निर्दोष चारित्र मिलना दुर्लभ है । इत्यादिक माता के अनेक प्रकार से समझाने पर भी वह स्थिर नही हुआ, तब अति करुणामयी माता उसे इस प्रकार कहने लगी ।
हे पुत्र ! जो तू मेरे वश में होवे तो मेरे आग्रह से इस गुरुकुलवास में बारह वर्ष अभी और रह तब दाक्षिण्यरूप जल के जलधि समान क्षुल्लक कुमार ने अपने मन में विषय