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________________ तीर्थकृदानमहत्त्वसिद्धयष्टकम् [२६] परमतारक श्री तीर्थंकर भगवान दीक्षा ग्रहण करने के पहले एक वर्ष तक जो दान देते हैं, उसे संवत्सरीदान कहते है। यह दान ऐसा अजीब है कि जिसके हाथों में जिनेश्वर देव के हाथ का वरसी दान पाता है, उसके पूर्व के सब रोग नष्ट हो जाते हैं । दान लेने वाला भव्य अर्थात् संसार का क्षय करके मोक्ष में जाने की योग्यता बाला ही होता है। अभव्य के पल्ले यह दान नहीं पड़ता है । मध्यस्थ, तटस्थ एवं गुणग्राहकता की दृष्टि से देखने वाले के लिये यह दान समस्त संसार में अनुपमेय, सर्वाधिक, सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम है । इतना होने पर भी सम्पूर्ण निर्मलता में मलिनता एवं पूर्ण गुणों में दोष निकालने वालों से संसार कभी खाली नहीं रहा । इस महान परिणाम शुभ दान के बारे में कोई कोई शंका करते हैं । उस शंका को ग्रन्थकार बताते हैं : जगद्गुरोमहादानं सङ्ख्यावच्चेत्यसङ्गतम् । शतानि त्रीणि कोटीनां सूत्रमित्यादि चोदितम् ॥१।। भावार्थ-तुम्हारे सूत्रों में कहा है कि-'तिन्नेव य कोडीसया, अट्ठासीइ च होइ कोडीओ। असीइ च सयसहस्सा, एयं संवच्छरे दिण्णं । (प्रावश्यक नियुक्ति गाथा २२० ) "त्रिभुवनगुरु भगवान श्री तीर्थकर देवों का दान ३८८००००००० (तीन अरब अट्ठासी करोड़) स्वर्णमुद्राएँ हैं" (अर्थात् तीर्थंकर देव १ लाख ८ हजार स्वर्णमुद्राओं
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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