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________________ (३) माता-पिताओं को ध्यान रखना चाहिए कि वे भगवान की जीवनी के शब्दों की आड़ में अपनी संतानों की प्रव्रज्या में रोड़ा न बनें और उनका इहलोक और परलोक न बिगाड़ें। चूकि इस अष्टक के छठे श्लोक में स्पष्ट निर्देश हैं कि “सभी प्रकार से सर्व पापों की निवृत्ति ही सत्पुरुषों को मान्य है" अतः जैसे माता-पिता अपने स्वार्थ हेतु भगवान के अभिग्रह के शब्दों को सन्तान के आगे रखते हैं, वैसे ही उन्हें उक्त पापनिवृत्ति के वचन को भी ध्यान में रखना ही चाहिए सन्तान का वर्तमान एवं भविष्य उज्ज्वल भव्य एवं महान बने, उस ओर अग्रसर होना चाहिये । शास्त्रों में अपनी सन्तान का पारलौकिकहित चाहने वाले माता-पिताओं को सच्चा माता-पिता कहा है। शास्त्रों में यहाँ तक बताया गया है कि—सच्चे माता पिता यह समझें कि अपने चारित्रावरणीय कर्म का उदय होने के कारण वे अपनी दीक्षा के दिव्य पथ पर जाने में असमर्थ हैं, पर यदि उनकी अपनी सन्तान दीक्षा-पथ पर प्रयाण करे तो अपना बड़ा सौभाग्य है । दोक्षा-पथ पर प्रवृत करने हेतु जनक-जननी अपने पुत्र-पुत्री आदि को बचपन से ही भव की भयंकरता का भान हो और वह संसार से विरक्त हो, ऐसी धर्म-शिक्षा दें । वे उनको ऐसी शिक्षा दें, जिसके प्रभाव से सन्तानों की संयमभावना सुदृढ बने । सन्तानों की संयम की भावना को देखकर माता पिता के मन-मयूर को मत्त बनकर नाच उठना चाहिए। उसको देखकर माता माने कि मैं रत्त-कुक्षिणी बनूगी, पिता माने कि मैं कुलदीपक का जनक बतूंगा । धन्य हैं वे जिनकी ऐसी सन्तान हैं। कदाचित् सन्तान के भाग्यवशात् (चारित्रा
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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