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________________ भावविशुद्धिविचाराष्टकम् [२२] भावशुद्धि र पि ज्ञेया यषा मार्गानुसारिणी । प्रज्ञापनाप्रियात्यथं न पुनः स्वाग्रहात्मिका ॥१॥ भावार्थ--जो मोक्ष मार्ग का अनुसरण करता है, जिसे आगमों का उपदेश अतिशय प्रिय है और जो स्व-मत-प्राग्रही (कदाग्रही) नहीं है, ऐसे व्यक्ति के भाव को विशुद्ध मानना चाहिए--[१]. रागो द्वेषश्च मोहश्च भावमालिन्यहेतवः । एतदुत्कर्षतो ज्ञेयो हन्तोत्कर्षोऽस्य तत्त्वतः ॥२॥ भावार्थ-राग, द्वेष और मोह प्रात्मभावों की मलिनता के हेतु रूप हैं अतः वास्तविक दृष्टि से राग, द्वेष, एवं मोह के उत्कर्ष को मलिनता का उत्कर्ष समझना चाहिए--[२]. तथोत्कृष्टे च सत्यस्मिन् शुद्धि शब्दमात्रकम् स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिमितं नार्थवद्भवेत् ॥३॥ भावार्थ-और इसी कारण से यदि मोह तीव्रतम हो, तो भावशुद्धि अपनी स्वन्तत्र बुद्धि कल्पना के कौशल द्वारा रचित, अर्थ-रहित शब्दचित्र रूप मात्र बन जाती है--[३]. न मोहोद्रिक्तताऽभावे स्वाग्रहो जायते क्वचित् । गुणवत्पारतन्त्र्यं हि तदनुत्कर्षसाधनम् ॥ ४ ॥
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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