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________________ ३८ एकान्तनित्यपक्षखण्डनाष्टकम [१४] तत्रात्मा नित्य एवेति येषामेकान्तदर्शनम् । हिंसादयः कथं तेषां युज्यन्ते मुख्यवृत्तितः ॥१॥ भावार्थ--सभी दर्शनों में 'आत्मा नित्य ही है' ऐसा जिनका एकान्त दर्शन है, उनमें मुख्य (प्रधान अथवा वास्तनिक) रीति से हिंसा आदि कैसे उचित हो सकती है--[१] निष्क्रियोऽसौ ततो हन्ति हन्यते वा न जातुचित् । कञ्चित् केनचिदित्येवं न हिंसास्योपपद्यते ॥२॥ भावार्थ--आत्मा निष्क्रिय है, इस कारण से वह किसी भी समय किसी का हनन नहीं करता एवं आत्मा का हनन भी किसी से नहीं होता, इस रीति से भी उसमें हिंसा नहीं घटती-[२] प्रभावे सर्वथैतस्या अहिंसापि न तत्त्वतः। . सत्यादीन्यपि सर्वाणि नाहिंसासाधनत्वतः भावार्थ-हिंसा के सर्वथा अभाव के कारण वास्तविक दृष्टि से अहिंसा भी सर्वथा असंभव है। अहिंसा की असंभावना होने से अहिंसा के साधन रूप सत्य आदि की संभावना भी समाप्त होजाती है--[३]. ततः सन्नीतितोऽभावादमीषामसदेव हि। सर्व यमाद्यनुष्ठानं मोहसङ्गतमेव वा ॥४॥
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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