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________________ पञ्चतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसासत्यमस्तेयं त्यागो मथुनवर्जनम् ॥२॥ भावार्थ-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांचों ही सर्वधर्मावलंबियों के लिये पवित्र हैं--[२] ॥३॥ क्व खल्वेतानि युज्यन्ते मुख्यवृत्त्या क्व वा न हि । तन्त्रे तत्तन्त्रनीत्यैव विचार्य तत्त्वतोह्यदः धर्माथिभिः प्रमाणादेर्लक्षणं न तु युक्तिमत् । प्रयोजनाद्यभावेन तथा चाह महामतिः "प्रसिद्धानि प्रमाणानि व्यवहारश्च तत्कृतः । प्रमाणलक्षणस्योक्ती ज्ञायते न प्रयोजनम " ॥४॥ ॥५॥ भावार्थ-ये पांचों ही व्रत हरेक धर्म में अपनी-अपनी अपेक्षा से (दृष्टि से अथवा रीति से) वास्तविक रूप में कहां घट सकते हैं और कहाँ नहीं, उसका ही धार्मिक पुरुषों का तत्त्वतः अर्थात् परमार्थ से विचार करना चाहिये, प्रमाण-प्रमेय आदि के लक्षणों का नहीं, क्योंकि वैसा विचार करना बिना किसी प्रयोजन के युक्ति-युक्त नहीं है । महामतिमान सूरि भगवान श्री सिद्धसेन दिवाकरजी महाराज भी न्यायावतार शाख के द्वितीय श्लोक में फरमाते हैं--प्रमाण और उनके द्वारा निष्पन्न होने वाला व्यवहार ये दोनों प्रसिद्ध हैं अर्थात् प्रत्येक प्राणी को अनुभव सिद्ध हैं, तो फिर प्रमाण का लक्षण कहने में क्या प्रयोजन है यह समझ में नहीं माता-[३-४-५]
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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