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________________ ३१ भावार्थ -- ऊपर कथित कारणों और प्रागम क्षेत्र बाह्य एवं दुर्ध्यान उत्पन्न करने वाला होने से आत्मा का अपकार (ग्रहित ) करने वाला यह तप बुद्धिमान पुरुषों को छोड़ देना चाहिए -- [४] अब ग्रन्थकार महर्षि उक्त शंकात्रों का निरसन आगे लिखे ४ श्लोकों द्वारा करते हैं । मन इन्द्रिययोगानामहा निश्चोदिता जिनैः । - यतोऽत्र तत्कथं त्वस्य युक्ता स्याद् दुःखरूपता ? 112 11 हानि अर्थात् रक्षा भावार्थ -- परमतारक भगवान श्री जिनेश्वर देवों ने प्रतिपादित किया है कि तप द्वारा मन, इन्द्रिय और योग की होती है । इस जिन-वचन से विचार करें तो तप सिद्ध हो सकती है ? अर्थात् नहीं सिद्ध हो सकती की दुःखरूपता कैसे - ―― [ ५ ] यापि चानशनादिभ्यः कायपीडा मनाक् क्वचित् । व्याधिक्रियासमा सापि नेष्टसिद्ध्यात्र बाधनी ॥ ६ ॥ --- भावार्थ - अनशन (उपवास) आदि द्वारा कभी-कभी शरीर में थोड़ी पीड़ा होती है पर वह बाधक नहीं है क्योंकि जैसे यदि किसी को रोग हो गया हो और डाक्टर या वैद्य खाद्य पदार्थों का निषेध कर दे तो रोगी उसे हितकर मानकर उसके अनुसार चलता है और रोगी को निषेध से उत्पन्न कायपीडा दुःखरूप नहीं लगती वैसे ही तप के सम्बन्ध में समझना चाहिए और तप को बाधक न मानकर साधक ही मानना चाहिए -- [६]
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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