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________________ २५ भावार्थ -- जिस प्रकार बाल जीवों को जहर (विष), रत्न, कांटे आदि का मात्र ऊपर-ऊपर स्थूल ज्ञान होता है, वैसे ही वस्तु में रहे हुए हेय, उपादेय आदि गुणों के भान से रहित वस्तु के सामान्य ज्ञान को प्रतिभासरूप ज्ञान कहते हैं -- [२] . निरपेक्ष प्रवृत्त्यादिलिङ्गमेतदुदाहृतम् । अज्ञानावरणापायं 11 3 11 भावार्थ - - यह विषय प्रतिभास ज्ञान निरपेक्ष अर्थात् अविचारी प्रवृत्तिरूप बाह्यचिह्न वाला है । इसे अज्ञानावरणीय कर्म के अपाय से अर्थात् क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला एवं महा अनर्थ का कारण भूत कहा गया है -- [३] . पातादिपरतन्त्रस्य अनर्थाद्याप्तियुक्त महापायनिबन्धनम् तद्दोषादावसंशयम् । चात्मपरिणतिमन्मतम 118 11 भावार्थ --सद्गति में होने वाले पात अर्थात् राग-द्वेष आदि के वश में होने वाले मनुष्य के, पात आदि गुणदोष जानने में संशय एवं विपर्यय के विना अर्थात् यथार्थ रीति से जनाने वाले एवं हानि लाभ की प्राप्ति कराने वाले ज्ञान को आत्मपरिणतिमत् ज्ञान माना गया है - [ ४ ] . तथाविधप्रवृत्त्यादिव्यङ्ग्यं सदनुबन्धि च । ज्ञानावरण ह्रासोत्थं प्रायो वैराग्यकारणम् ।। ५ ।। भावार्थ – पुनः यह श्रात्मपरिणतिमत् ज्ञान सम्यक् प्रवृत्ति - निवृत्ति रूप से प्रकट होने वाला, शुभ अनुबन्ध अर्थात् शुभ परिणाम - परम्परा
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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