________________
॥४॥ जो तत्त्वज्ञ हैं, भौरों के समान फूलों के प्रतिबन्ध से रहित है, अनेक घरों से थोड़ा २ आहारादि लेने में संतुष्ट हैं, तथा इन्द्रियों का दमन करने वाले हैं वे साधु कहलाते हैं । ॥ ५॥ दशवकालिक सूत्र प्रथम अध्ययन २,३,४,५--[२-३]
प्रव्रज्या प्रतिपन्नो यस्तद्विरोधेन वर्तते । प्रसदारम्भिणस्तस्य पौरुषनीति कीर्तिता
भावार्थ--जो प्रव्रजित भिक्षु (दीक्षित साधु) प्रव्रज्या-दीक्षा के विरोधी आचरण करने वाला हो अर्थात् जिसका आचरण संयम विरोधी अर्थात् स यमघातक हो, ऐसे असद् प्रारंभकारी अर्थात् पापकारी माचरण वाले व्यक्ति की भिक्षा को 'पौरुषघ्नी' भिक्षा कहते हैं-[४-]
॥
४
॥
धर्मलाघवकृन्मूढो, भिक्षयोदरपूरणम् । करोति दैन्यात्पीनाङ्गः पौरुषं हन्ति केवलम् ॥५।
भावार्थ-धर्म की लघुता यानी निन्दा करने वाला, मूढ़ और स्थूल शरीर वाला जो साधु दीनतापूर्वक भिक्षा से अपनी उदरपूर्ति-उदरभरण करता है उससे वह मात्र पुरुषार्थ का नाश करता है--[५]
निःस्वान्धपङ्गवो ये तु न शक्ता वै क्रियान्तरे । भिक्षामटन्ति वृत्त्यर्थ वृतिभिक्षे यमुच्यते ॥६॥
भावार्थ--भिक्षा के अतिरिक्त दूसरी क्रिया करने में असमर्थ, गरीब, अन्धे और पङ्ग, मनुष्य उदर निर्वाह हेतु जो भिक्षा मांगते हैं उसे 'वृत्ति-भिक्षा' कहते हैं--[६]