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________________ भावार्थ--हिंसादोष से सर्वथा निवृत्त ऋषियों के लिए व्रतनियम, पौर शील-समाधि की अभिवृद्धि करने वाला भावस्नान ही उत्तम है ऐसा मुनिश्रेष्ठो ने फरमाया है--[७]. स्नात्वाऽनेन यथायोगं निःशेष मलवर्जितः । भूयो न लिप्यते तेन स्नातकः परमार्थतः ॥८॥ भावार्थ-अधिकारानुसार द्रव्यस्नान एवं भावस्नान करके सम्पूर्ण कमरहित होने वाला वापिस कर्मों से बाँधा नहीं जाता, इसलिये ही वास्तविक दृष्टि से सच्चे अर्थ में स्नातक कहा जाता है --[८] पूजाष्टकम् [३] अष्टपुष्पी समाख्याता स्वर्गमोक्षप्रसाधनी । प्रशुद्धतर भेदेन द्विधा तत्वार्थदशभिः ॥१॥ भावार्थ--तत्वदर्शियों ने--महान् ज्ञानियों ने अष्टपुष्पी पूजा: दो प्रकार की कही है: (१) अशुद्ध, (२) शुद्ध । वह अनुक्रम से स्वर्ग एवं मोक्ष की साधनरूप है--[१]. शुद्धागमयंथालाभं प्रत्यप्रैः शुचिभाजनैः । स्तोकैर्वा बहुभिर्वाऽपि पुष्पैत्यिादिसम्भवः ॥२॥ अष्टापायविनिमुक्ततदुत्थगुणभूतये । दीयते देवदेवाय या साऽशुद्धत्युदाहृता ॥३॥
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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