SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६५) वसंति हंसा, यत्रामिषं तत्र पतंति गृध्राः ॥ यत्रार्थिनस्तत्र नवंति वेश्या, यत्राकृतिस्तत्र गुणावसंति ॥१॥ हवे राजायें कडं के हे वत्स ! ए राधावेध साधी कन्या सहित राज व्यो. ते कुमरनी मुखाकृति देखी लोक पण चमत्कार पाम्यां. कुमर पण राजानो श्रादेश पामी निश्चल मने गुरुना चरणकमलने नमस्कार करी स्थंननी नजीक जइ धनुष्यने नमन करी तत्काल धनुष्य चढावी तेलनी कढाइमांहे नीची दृष्ठिये मुख जोते थके उपर बाण मूक्यो. ते बाणे राधानी अांखमाहेली कीकी वींधी, जेवी वींधी के तुरत याचक लोकोयें जयजयारव कीधो, अने कन्यायें वरमाला घाली. राजा अने मंत्रीश्वर ए बे हर्ष पाम्या, तिहां सुरेंजदत्त कन्या सहित राज्यलक्ष्मीनां सुख पाम्यो. एवी रीतें कोई कदाचित् राधावेध साधे, पण मनुष्यनवश्री ब्रष्ट थ| यो, ते वली फरीने नरजव न पामे ॥ इति सप्तम चक्रदृष्टांतः ॥७॥ हवे श्राध्मो कूर्मनो दृष्टांत कहे :-कोश्क ए. क लद योजन प्रमाण अह , तेमां एक महोटो काचबो रहे ले. तेणें एकदा प्रस्तावें वायराने योगें
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy