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________________ (२६) मार क्रोध जीतवाथी मोदे गयो. अने सोमिल ब्राह्मण मरी उर्गतियें गयो. ए माटें क्रोधनो जय करवो॥इति क्रोध जयोपरि गजसुकुमारकथा ॥३॥ हवे अहंकारना दोषो कहे . ॥ मंदाक्रांताटत्तम् ॥ यस्मादाविनवति विततिठस्तरापन्नदीनाम, यस्मिन् शिष्टानिरुचितगुणग्रामनामापि नास्ति ॥ यश्च व्याप्तं वदति वधधीधूम्यया क्रोधदावम, तं मानाहिं परिदर उरारोदमौचित्यत्तेः ॥४ए॥ अर्थः-हे जव्य प्राणी ! (औचित्यवृत्तेः के०) उचित श्राचरण करवाथी, अर्थात् योग्यविनय करवाथी ( तं के० ) ते ( मानाहिं के० ) अहंकाररूप पर्वतने (परिहर के० ) त्याग कर. ते मानाति ए. टले मानरूप पर्वत कहेवो में ? तो के ( यस्मात् के) जेथकी (पुस्तरा के० ) न तराय एवी (श्रापन्नदीनां के०) विपत्तिरूप नदीनी ( विततिः के०) पंक्ति, ते (आविर्जवति के०) प्रगट थाय बे. जेम बीजा पर्वतोथकी पण नदीनी श्रेणि उत्पन्न थाय दे तेम. वली ( यस्मिन् के० ) जे मानरूप पर्वतने
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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