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________________ (१२) मोहेन घनो निबिडः । तु पुनः जंतुः एवं न मनुते न जानाति । यदयं आत्मा जीवो निःशेषं समस्तं विनवं व्यं विमुच्य त्यक्त्वा अन्यं नवं अपरं जन्म परनवं याति । तत्तस्मात् कारणात् अहं मुधैव वृथैव नूयांसि प्रचुराणि एनांसि पापानि किमर्थं विदधामि करोमि ? एवं न जानाति ॥ ४ ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां दर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु, प्रक्रमोयं परिग्रहे ॥ए॥ इति परिग्रहप्रक्रमः॥ए॥त्र नंदराज मम्मणकथा ॥ नाषाकाव्यः-उप्पय बंद ॥ ज्यौं नहिं अगनि श्रघाय, पाय इंधन अनेक विधि ॥ ज्यौं सरिता घ. ननीर. तृपति नहिं होय नीरनिधि ॥ त्यों असंख धन बढत, मूढ संतोष न मानै ॥ पाप करत नहिं मरहिं, बंध कारन मन आनै॥परतरक विलोकी जनम मरन, अथिर रूप संसार क्रम॥समुफै न पाप परताप गुन, प्रगट बनारसि मोहबम ॥ ४ ॥ __कथाः-मगधदेशे राजगृहीनगरीमां श्रेणिकराजा ने तेनी चेलणा नामें राणी बे. एकदा प्रस्तावें जा. उपद मासे चेलणा राणी राजानी साथे गोखमां बेगं थकां वैजारगिरि साहामुं जोवा लाग्यां. ति HDMOMDISORIOR
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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