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(२०१) २, सिखर पाषान खंग मित ॥ विघन उलटि श्रानंद, होश रिपु पलटि हो हित ॥ लीला तलाव सम उदधि जल, गृह थटवी विकट ॥ इह विध श्रनेक उख होश सुख, शीलवंत नरके निकट ॥४०॥
हवे परिग्रहना दोषो कहे . कालुष्यं जनयन् जडस्य रचयन धर्मजुमोन्मूलनम, क्लिश्यन्नीतीकृपादमाकमलिनीर्लोनांबुधिं वर्धयन् ॥ मर्यादातटमुजुजन शुनमनोहंसप्रवासं दिशन, किंन क्वेशकरः परिग्रहनदीपूरः प्रएिं गतः॥४१॥
अर्थः-(परिग्रह के०) धन, देत्र, गृह, रूप्य, सुवर्ण, कृप्य, छिपद, चतुःपद, ए नवविध परिग्रहरूप जे (नदीपूरः के० ) नदीनो प्रवाह, ते (प्रवृकिंगतः के०) अति वृद्धिने पामतो तो (किं के०)
(क्लेशकरः के० ) क्लेशने करवावालो (न के०) नथी थातो ? अर्थात् थायज . हवे परिग्रहने नदीना प्ररनी सादृश्यता कडेले. ते परिग्रहरूप नदीपूर शुं करतो तो वृद्धिंगत थाय ले ? तो के ( ज. डस्य के०) जडपुरुषोना ( कानुष्यं के०) क्लिष्ट