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________________ (१४३) अने श्रावकरूपें दोगे, ते देखीने हर्षवंत थयो. पनी जमवानी निमंत्रणा कीधी, रसोश्याने कडं के साधर्मिकने रूडी रीतें नोजन करावो. इंछ पण श्रावकरूप धरतो घरमांदे श्राव्यो, पच्चरकाण पारी श्रावकोनी पंक्तिमा जमवा बेगे. एक कोंड श्रावकने अर्थे जेटवू श्रन्न निपजाव्युं हवं तेटवं ते एकलो जम्यो, वली रसोश्याने कयु के हुँ नुख्यो बुं, माटे अन्न आप. रसोश्यायें राजानी आगल सर्व वात कही. राजा तिहां श्राव्यो, तेने श्रावकरूपधारक झें कयु के ए रसोश करनार सर्वने नूख्या राखे . राजायें वली सो मूडा अन्न रंधावी पीरश्यु, ते तत्काल जमीने वली कहेवा लाग्यो के महारी नूख ग नथी. ए रीतें राजानुं अपमान करवा लाग्यो के हुँ तृप्त थातो नथी. तेवारें राजायें मनमां खेद कस्यो जे महाराथी संघनी पूर्ण नक्ति थाती नथी, माटें मुने धिक्कार . सेवक बोल्या महाराज! ए को देवस्वरूपी बे, तेवारें राजायें धूपादिकें संतोषी नमस्कार करी पूज्युं के हे स्वामी! प्रसन्न था. साधर्मीनी नक्ति महाराथी केम थर शके ? एवं सांजली ईवें पोतानुं प्रगट रूप कीg. दंभवीर्यनीप्र
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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