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________________ ( ११५) यतः ॥ सुच्चा जाणश कहाणं, सुच्चा जाण पावगं॥ उन्नयंपि जाणई सुच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥१॥जो जव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा श्रीजिनप्रणीतसिद्धांतानां श्रवणं कर्त्तव्यं । कुर्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुएयप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु॥१७॥ नाषाकाव्यः-कुंमलियाबंद ॥ देव अदेवहिनही लखें, सुगुरु कुगुरु नहिं सूज ॥ धर्म अधर्म गिनें नही, कर्म अकर्म न बूऊ ॥ कर्म अकर्म न बूज गूज, गुन अगुन न जानहि ॥ हित अनहित न सदहै, निपुन मूरख नहि मानहि ॥ कहत बनारसि ज्ञान, दृष्टि नहि अंध अवेव हि ॥ जैन बचन दृग हीन, लखें नहि देव अदेव हि ॥ १७ ॥ ॥ शार्दूलविक्रीमितत्ताष्टकम् ॥ मानुष्यं विफलं वदंति हृदयं व्यर्थ वृथा श्रोत्रयो, निर्माणं गुणदोषनेदकलनां तेषामसंन्नाविनीम् ॥ उर्वारं नरकांधकूपपतनं मुक्ति बुधा उझनाम्, सार्वज्ञ समयोदयारसमयो येषांन कर्णातिथिः ॥ १७ ॥ अर्थः-(सार्वज्ञः के० ) सर्वदेवप्रणीत अर्थात्
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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