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________________ ( २९१ ) आसवदारा संसार-हेअवो; नं ण धम्मसुक्केसु । संसार कारणाइं; तओ धुवं धम्मसुक्काई ।।९।। अर्थः--आश्रव के द्वार संसार के हेतु हैं। ये संसार हेतु धर्मध्यान व शुक्लध्यान में नहीं होते प्रतः धर्म-शुक्ल-ध्यान अवश्य संसार के प्रतिपक्षी हैं। धर्म-शुक्ल-ध्यान संसार प्रतिपक्षी कैसे ? विवेचन : ___संसार के हेतु इन्द्रिय, कषाय, अव्रत आदि आश्रव द्वार हैं । धर्म और शुक्लध्यान में ये संसारवर्धक हेतु नहीं होते हैं. क्योकि वहां कोई इन्द्रिय-आसक्ति नहीं है, अप्रशस्त कषाय नहीं है, अविरति नहीं हैं, अशुभ योग नहीं है । ये संसारवर्धक हेतु न होने से धर्म-ध्यान व शुक्लध्यान स्वाभाविक ही संसार नहीं बढाते। अत: वे अवश्य संसार के प्रतिपक्षी या विरोधी हैं। जहां धर्म-शुक्ल-ध्यान वहां संसार-उत्पत्ति नहीं। यदि संसार बढाने की इच्छा नहीं है यानी अनिच्छा है तो ये ध्यान उसके अनन्य साधन हैं ऐसा समझ रखना चाहिये। तात्पर्य, सब धर्मसाधना की जाए, किन्तु यह प्रत्येक साधना धर्मध्यान से अन्वित होनी ही चाहिए । आगे बढ़ कर शुक्लध्यान लाना ही चाहिए । तभी मोक्ष होगा। शुक्ल-ध्यान संसार का प्रतिपक्षी होने से मोक्ष का कारण है, यह बताते हुए कहते हैं --
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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