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अन्त आता है । मात्र सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन सुख और सिद्धत्व ही बाकी रहते हैं, इनका अन्त नहीं होता । क्योंकि ये सम्यक्त्वादि गुन तो आत्मा का मूलभूत स्वभाव है और संसार काल में ये गुन मिथ्यात्वमोहनीय आदि कर्मों से आवृत्त रहने वाले होने स अब सव कर्म क्षय से वे प्रकट होते हैं अतः क्षायिक सम्यक्त्वादि कहलाते हैं । वे अब सदा काल हमेशा के लिए प्रकट रहते हैं।
___ अस्पृशद् गति से सिद्धि गमन : अब जब कि १४वें गुणस्थानक के अन्तिम समय में समस्त कर्मों का क्षय आ कर खड़ा हुआ कि तुरन्त ही उसके बाद के एक ही समय में जीव ऋजु (सीधी) गति से सिद्ध होता है। अर्थात् लोकान्त में स्थित सिद्धशिला के ऊपर पहुंच जाता है। वह यहां से छूट कर वहां पहुंचता है उसमें बीच में दूसरे समय या दूसरे प्रदेश की स्पर्शना भी नहीं होती ( सश नहीं होता)। अर्थात् यहां से छूटने के समय १४वें गुणस्थानक के पूर्ण होते ही, १४वें गुणस्थानक के अन्तिम समय के बीत चुकने के बाद का समय जो यहां से छूट जाने का है और ऊपर पहुंचकर सिद्धशिला पर आरूढ़ होने का जो समय है वे दोनों एक ही हैं। यहां से छूटने और वहां पहुँचने के समयों के बीच में एक भी समय का अन्तर नहीं होता। इस तरह से उस जीव को अन्तिम समय में यहां के आकाश प्रदेश की स्पर्शना और बाद के दूसरे ही समय ऊपर लोकांत के आकाश प्रदेश की स्पशना। बीच किसो आकाश प्रदेश की स्पर्शना ही नहीं-स्पर्श नहीं । इस तरह से बीच के समयान्तर या प्रदेशांतर का जब कोई स्पश ही नहीं होता। इस तरह की स्पर्शना - रहित गति से वह जीव ऊपर पहुंच जाता है अतः उस गति को अस्पृशद् गति कहते हैं। ऐसी गति से जाना होता है उसका कारण शुद्ध तथा कर्म से सर्वथा मुक्त बने हुए जीव का तथास्वभाव है।