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________________ ( २३२ ) समाधि तथा वचन काययोग की स्वस्थता रहती है । यह भाव कल्याणस्वरूप है, क्योंकि अन्त में सूक्ष्म काय योग की वृत्ति उत्पन्न होकर शैलेशीकरण की साधना करवा कर सर्व संवर याने सर्वथा कर्मबंध रहित अवस्था ला देता है ।' श्रेष्ठ संवरदान करने वाले अनन्त अरिहन्त प्रभु ने यह फरमाया है । इस भावना से संवर की अनुमोदना तथा उसका आचरण आता है । (६) निर्जरा भावना : 'जैसे शरीर में संग्रहित ग्राम पित्तादि दोष का प्रयत्नपूर्वक विशेष शोषण किया जाय तो वह पच जाता है. जर्जरित होकर नष्ट हो जाता है; इसी तरह आत्मा पर संग्रहित कर्मों को उपरोक्त संबर मार्ग भी तप सहित बनने से निर्जरा कर डालता है, क्षीण कर देता है...।' इस भावना से निर्जरा की तमन्ना जाग उठती है । (१०) लोक भावना : लोक याने १४ राजलोक केऊर्ध्व, धो तथा तिछलोक के विस्तार का चिंतन करना चाहिये । उसको प्रमाण प्रकृति आदि तथा उसमें कहां कहां क्या क्या आया हुआ है तथा वहां सर्वत्र प्रत्येक स्थान पर हुए अनन्त जन्म मरण और उनमें हुई आत्मा की दुर्दशा आदि का चिंतन करना चाहिये । साथ में लोक में रहे हुए अनेकविध रूपी पुद्गल द्रव्य और उनके अब तक के हुए तथा होने वाले उपयोगों का चिंतन करना चाहिये । इससे वैराग्य तथा समाधि की प्राप्ति होती है । ११) धमं स्वाख्यात भावना : 'अहो ! रागद्वेषादि प्रांतर शत्रुओं को जोतने वाले श्री जिनेश्वर भगवन्तों ने कैसा अनन्य सुन्दर श्रुत धर्म व चारित्र धर्म बताया है। विश्व में उसकी तुलना में कोई नहीं है । उसके समान कोई सुन्दर कार्य नहीं है । जो इस धर्म में रक्त रहे वे संसार-समुद्र को सरलता से तैर गये ।' इस भावना से धर्म ऋद्धि बढती है ।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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