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________________ रममा ( २२८ ) भाणोवरमे वि मुणी णिच्चमणिच्चाइभावणापरमो। । होइ सुभाविय चित्तो धम्ममाणेण जो पुन्धि ॥६५॥ अर्थ:- ध्यान चला जाय तब भी मुनि हमेशा अनित्यादि भावना में विचरे और चित्त को उससे भावित करता रहे। ध्यान रहित मध्यस्थ दृष्टि वाले नेत्र सहित मुद्रा वाली मूर्ति पूर्ण वीतराग सर्वज्ञ अवस्था की मूर्ति है।) १२ अनुप्रेक्षा यह प्रासंगिक बात हुई । अब मूल विषय धर्मध्यान के 'अनुप्रेक्षा' द्वार का अवसर आने से उसकी व्याख्या करने के लिए कहते हैं:विवेचन : यहां अनुप्रेक्षा अर्थात् अनित्यादि भावना। उसका उपयोग इस तरह है : धर्मध्यान के उपरोक्त आज्ञा, अपाय, आदि में से किसी विषय पर मन तन्मय लगाया; पर उसमें से मन चंचल होकर ध्वान टूट जाय तब क्या कर ? इसके लिए यहां कहा है कि तब भी हमेशा मन को तुरन्त अनित्यादि भावना में लगा देना चाहिये । 'तब भी' में 'भी' का भाव यह है कि यों तो इन भावनाओं में ही मन लगाये रखना चाहिये; किन्तु ध्यान के समय ध्यान खण्डित होने पर भी इन १२ भावनात्रों में मन को लगायें । अनित्य आदि में आदि शब्द से आशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आश्रव, संवर, निर्जरा, लोक, धर्म स्वाक्यात, बोधिदुर्लभ भावनाएं समझने १२ भावनाओं का स्वरूप 'श्री प्रशमरति' शास्त्र माथा १५१ से १६२ में बताया है उसका चिंतन इस प्रकार करें।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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