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________________ ( २२७ ) तीपरे चौथे शुक्ल ध्यान के अधिकारी जैसे शुक्ल ध्यान के पहले दो प्रकार पूर्वधर अप्रमत्त या क्षपक उपशामक को होते हैं, वैसे ही अन्तिम दो प्रकार क्रमश: दो प्रकार के केवली को होते ह । अर्थात् (३) सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति शुक्ल ध्यान सयोगी केवली को तथा (४) व्यूपरत क्रिया अप्रतिपाती शुक्ल ध्यान अयोगी केवली को होता है। सयोगी याने विहार, उपदेश, गोचरी आदि काययोग वचनयोग वाले केवलज्ञानी मोक्ष प्राप्ति के पहले के अन्न मुहूर्त काल में पहले योगों का निग्रह करके शैलेशी । मेरु जैसा निष्प्रकम्प आत्म-प्रदेश अवस्था प्राप्त करने के लिए वहीं तीसरा शुक्ल ध्यान धारण करते हैं और उससे अयोगी बन जाने पर चौथा शुक्ल ध्यान करते हैं, जिससे सर्व कर्म का क्षय होता है। ध्यानांतरिका : केवली अध्यानी शास्त्र में यह उल्लेख मिलता है कि शुक्ल ध्यान के प्रथम दो भेद पसार कर तीसरे व चौथे की प्राप्ति के पहले ध्यानांतरिका होती है। यह ध्यानांतरिका याने पूर्वार्ध उत्तरार्ध शुक्ल ध्यान की मध्य अवस्था है । इसमें केवलज्ञान तो दूसरे भेद के अन्त में उत्पन्न हो जाता है, अब वह अक्षय होता है । केवली शुक्ललेश्या वाले ही होते हैं । वेजब तक तीसरे सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति को प्राप्त नहीं कर लें, तब तक वे अध्यानी याने ध्यान रहित रहते हैं। उन्हें सब कुछ प्रत्यक्ष होने से तथा भावमन न होने से कुछ भी अज्ञान चिंतन करने जैसा ही नहीं होता; अतः उन्हें ध्यान नहीं होता। तो फिर आगे जाकर उन्हें तीसरा चौथा शुक्ल ध्यान क्या ? उसकी स्पष्टता बाद में होगी। ( इस पर से यह समझ में आवेगा कि श्री तीर्थंकर परमात्मा की ध्यानस्थ मुद्रा वाली मूर्ति अपूर्ण अवस्था की मूर्ति है और
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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