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________________ ( २१२ ) त्रिकालावस्थाम् इति मुनिः ।' कहीं भी राग द्वेष न हो, इसलिए जगत के पदाथी की भूत भविष्य वर्तमान तीनों काल की अवस्या याने पर्यायों का मनन करे वह मुनि । चाहे जैसे अनुकूल या प्रतिकूल जड़ पदार्थ सामने आवे या अनुकूल या प्रतिकूल बर्ताव करने वाले जीव मिलें, परन्तु 'वह वर्तमान अवस्था से विपरीत, बीभत्स या अच्छी मनपसन्द अवस्था भून या भावो में वह जड या जीव में है', उस ओर विचार रखने से राग द्वेष या हर्ष शोक ऊठ नहीं सकता। ऐसे मुनि ये व्यापारी इसलिए कहलाते हैं कि वे अच्छी तरह से आय व्यय तथा नफा नुकसान अच्छी तरह समझ सकते हैं ! (१) कहां उत्सर्ग मार्ग में लाभ और, अपवाद मार्ग में नुकसान ? तथा कहाँ किस प्रकार के उत्सर्ग पकड़े रखने में लाभ मामूली व नुकसान पारावार है ? और वहीं अपवाद पकड़ने में नुकसान मामूली, परन्तु परिणाम में लाभ अपार ? यह समझने में अति निपुणता से सोचकर प्रवर्तित होते हैं । अतः मुनि व्यापारी हैं। ऐसे ये मुनि शीलांग-रत्न भरे चारित्र जहाज से थोड़े ही वक्त में और किसी भी प्रकार के अन्तराय बिना मोक्षनगर तक यानी परिनिर्वाणनगर पहुंच जाते हैं । इस प्रकार संस्थान विचय ध्यान का चिन्तन करे। (गाथा-६०) ७. मोक्ष पर चिन्तन यह परिनिर्वाण याने सब ओर से परम शान्ति रूप मोक्षनगर कैसा है ? वह ज्ञान-दर्शन-चारित्र रत्नत्रय के विनियोगात्मक है । 'विनियोग' याने क्रियाकरण । इस रत्नत्रयी के क्रियाकरण से मोक्ष उत्पन्न होता है व अनन्त रूप होता हैं । अतः मोक्ष को रत्नत्रय विनियोगात्मक कहा। मोक्ष अवस्था खड़ी करने वाला कौन ? रत्न त्रय का आचार-पालन । क्योंकि जीव की मोक्ष अवस्था अनन्त
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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