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________________ ( २११ ) होता है, वह स्पर्शेन्द्रिय का संयम रखकर, रसनेन्द्रिय का संयम रख कर,.... आदि पूर्व के सौ प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय संयम के साथ जोड़ने से १००४५=५०० प्रकार से शीलांग हुआ। वह भी आहार, विषय, परिग्रह व निद्रा या भय नामक चार संज्ञाओं के निग्रह के साथ पालन करना चाहिये । अत: ५०० में से प्रत्येक प्रकार आहारसंज्ञा आदि के निग्रह के साथ, विषय संज्ञा के निग्रह के साथ,....इस तरह मिलकर कुल ५००x४= २.०० शीलाम हुए। ये भी प्रत्येक प्रकार मन से, वचन से तथा काया से पालन करना चाहिये। अतः आहार संज्ञा निग्रह, स्पर्शेन्द्रियादि संयम ध क्षमा आदि रखने के साथ पृथ्वोकाय हिंसा मैं मन से नहीं करूंगा। इस तरह मन से २००० प्रकार हुए। इसी तरह वचन से तथा काया से दो दो हजार मिल कर कुल २०००४३=६००० शीलांग हुए । _. इसी तरह मात्र 'करु नहीं' ऐसा नहीं, किन्तु करवाऊं भी नहीं और अनुमोदन भी नहीं करूं। इस तरह उपरोक्त मन वचन काया के ६००.४३ =१८००० शीलांग हए। यों दूसरी तरह से भी १८००० शीलाँग होते हैं। चारित्र जहाज में ये सब रत्न भरे हुए हैं। ये महा किमती रत्न हैं क्योंकि इनसे हो *ऐकान्तिक और आत्यन्तिक सुख मिलता है। (इसे सरलता से याद रखने का सूत्र है'आय कई संयोग' आरम्भ १०४ यति धर्म १०४ करण ३४ इन्द्रिय ५Xसंज्ञा ४४ योग ३=१०००) ये १८००० शीलांग रत्न भरे चारित्र जहाज पर आरूढ हए मूनि रूपी व्यापारी मोक्ष नगर की ओर जा रहे हैं। 'मन्यते जगत् *ऐकान्तिक' याने सुख ही सुख; दु ख का लेश मात्र भी नहीं। 'प्रात्यन्तिक' याने अन्त को प्रतिक्रान्त किया हुना याने उल्लंघन किया हुमा अर्थात् शाश्वत ।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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