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________________ ( १९२ ) कम कम योजन मोटी और प्रत्येक लोकाकाश के अन्त तक विस्तृत तथा नीचे और चारों ओर पास में धनोदधि आदि वियों से मावेष्टित है। इन सात पृथ्वियों के उपरान्त एक पृथ्वी १४ राजकोक के याने लोकाकाश के सिरे (आर) पर ५ अनुत्तर विमान से १२ योजन ऊची है। यह ईषत् प्राग्भारा याने सिद्धशिला नाम को और स्फटिक रत्न की है। वह भी रोटी जैसी गोल किन्तु बीच में ८.योजन मोटी और वहां से धीरे धीरे पतली बनती जाती है जिससे बिलकुल किनारे पर तीक्ष्ण होती है। उसका विस्तार (म्बई चौड़ाई याने व्यास) ४५ लाख योजन है। उतने ही प्रमाण वाले ढाई द्वोप के किसी भी स्थान से जीव मोक्ष प्राप्त करके वहां से सीधी गति में ऊंचे जाकर सिद्धशिला के ऊपर लोक के अन्त भाग में स्थिर होता है। वलय : प्रत्येक पाताल भूमि के नीचे और चारों ओर उसे आवेष्टित करके रहे हुए धनोदधि. धनवात और तनवात हैं। उसमें पहला वलय जमे हूए बर्फ जैसा, उसके नीचे दूसरा जमे हुए कायुरूप और उसके नीचे सूक्ष्म वायुरूप होता है। ये वलय थाली जैसे हैं और एक थाली में दूसरी थाली रखी हो उस तरह हैं, एक में दूसरी, दूसरी में तीसरी। तीसरी धनोदधि; फिर उसमें रोटी जैसी पृथ्वी जो पूरः थाली मे भरी हो। ऐसे ३-३ वलय प्रत्येक पाताल पृथ्वी के नीचे हैं, अतः कुल २१ वलय हुए। द्वीप : बीच में जम्बू द्वीप रोटी जैसा गोल है और प्रमाण अंगल के नाप से १ लाख योजन लम्बा चौड़ा याने व्यास वाला है। इस द्वीप के चारों ओर लवण समुद्र चूड़ी के आकार का है और २ लाख योजन चौड़ा है। उसके चारों ओर घातको खण्ड भी चूड़ी के आकार का तथा ४ लाख योजन चौड़ा है। फिर उसके चारों ओर समुद्र द्वीप समुद्र द्वीप....पाते हैं जिसमें अन्तिम द्वीप
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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