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________________ ( १८४) अतीत समय-सम्बद्ध के रूप में नहीं रहा याने नष्ट है; तब भी मूल धर्मास्तकाय के रूप में खड़ा है, कायम है। अत: इसका अर्थ यह हुआ कि कोई भी पदार्थ अमुक समय के साथ सम्बन्ध हुआ इस अपेक्षा से उत्पन्न है, अब अतीत समय-सम्बन्ध नहीं रहा इस अपेक्षा से नष्ट: है और मूल द्रव्य की अपेक्षा से कायम है। कहा है :सर्व व्यक्ति षु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः । सत्याश्चित्यपचित्योराकृतिजाति - व्यवस्थानात् ॥ अर्थ:-समस्त वस्तुव्यक्ति में प्रतिक्षण निश्चित प्रकार की विभिन्नता आती रहती है, तब भी उस में अनेकव्यक्तिता नहीं होती, एकव्यक्तिता ही है, क्योंकि इसमें कमीबेशी होने पर भी आकार व जाति वही व्यवस्थित है, कायम है । अथवा आकार और जाति की स्वतन्त्र व्यवस्था है, याने आकार बदलता है, जाति नहीं बदलती। जाति न बदलने से व्यक्ति वही खड़ी रहती है और उसमें आकार बदलने से उसके स्वरूप पर्याय-अवस्था भिन्न भिन्न होती है। . उदा० धर्मास्तिकायादि उस उस क्षण-सम्बद्ध वस्तु के रूप में भिन्न भिन्न होने से उसमें प्रतिक्षण निश्चित प्रकार की भिन्नता आई; तब भी इसका विशिष्ट आकार और धर्मास्तिकायता रूप जाति तो ज्यों की त्यों खड़ी है। इसमें इसमें एक-व्यक्तित्व है, अनेकव्यक्तित्व नहीं। इसीलिए सोना कलश, मुकुट, कंठी, कड़ा आदि रूप में बदलने पर भी व्यक्ति वही सोना ही है; क्योंकि उसमें असल सोने का आकार, याने स्वर्णपन का माल वजन चमक आदि, कायम (स्थिर) हैं। साथ ही स्वर्णत्व की जाति भी कायम है अर्थात् वह सोना है ऐसा व्यवहार खड़ा ही है। सोने की जाति नहीं बदली। अथवा भाकार कलश, मुकुट आदि बदलने पर भी स्वर्ण जाति वही रहती है। ऐसा ही प्रत्येक व्यक्ति में है। तात्पर्य यह कि एक ही व्यक्ति
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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