SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३१ ) यों तो केवलज्ञानी को ध्यान करने का हीं नहीं होता । क्योंकि (i) वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी होने से उनके समक्ष तीनों काल के समस्त भाव प्रत्यक्ष होने से उन्हें चिंतन करने जैसा कुछ भी बाकी ही नहीं रहना, फि ध्यान किस का करें ? पुन: (ii) वे अब जीवनसिद्ध बन चुके हैं । उनका साधना काल समाप्त हो चुका है । साधना मात्र से सब घाती कर्मों का जो नाश करना होता है वह तो उन्हें सर्वथा हो चुका है। तो अब ध्यान को साधना किस लिए करें ? तो जो "अघात कर्म बाकी हैं, वे तो भुगत कर पूरे होंगे । वे साधना से जल्दी नाश किये जा सकने योग्य होते ही नहीं हैं। साथ ही वे यदि बाकी हों तो भी आत्मा के निर्मल वीतराग सर्वज्ञ स्वरूप परमात्मअवस्था को कुछ हानि नहीं पहुँचता । अतः अब कुछ भी साधना ही न होने से उन्हें ध्यान-साधना भी नहीं होती । इस पर से यह भी समझ में आता है कि देव की ध्यानस्थ मूर्ति अपूर्ण अवस्था की मूर्ति है। मध्यस्थं चक्षु वाली आंखों की प्रशांत वीतराग सर्वज्ञ अवस्था वाली परमात्मा की मूर्ति ही पूर्ण अवस्था को मूर्ति है। साधक का अन्तिम आदर्श इस पूर्ण अवस्था की कक्षा का ही होता है, अत: वह वीतराग अवस्था की मूर्ति की ही पूजा करेगा न ? और भाव से देवाधिदेवत्व या तीर्थङ्करत्व तो इस पूर्ण वीतराग सर्वज्ञ अवस्था में ही है । बात यह है कि केवलज्ञानी को ध्यान की साधना करने का ही नहीं होता । पर अब जब मोक्ष पाने का समय अत्यन्त निकट आ गया हो तब उन्हें योग का निरोध करना आवश्यक है । क्योंकि अब तक विहार व्याख्यान गोचरी आदि प्रवृत्ति याने काययोग वचनयोग चालू है अत: कर्म-बन्ध के पांच मुख्य कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग में से पांचवां कारण 'योग' अभी भी उपस्थित है । ये है वहां तक कर्म-बन्ध चलता रहेगा । तो मोक्ष
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy