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________________ ११४ ) निच्चं चिय जुबइ - पसु-नपु सग कुसीलवज्जियं जइयो । ठाणं वियणं भणियं विसस झाणकालंमि ||३५|| अर्थ : - यति के लिए हमेशा तथा विशेषकर के ध्यान के समय युवती, पशु, नपुंसक तथा कुशील मनुष्य से रहित एकान्त स्थान जरूरी कहा है । 1 नहीं है । क्योंकि उसमें भी अहंत्व काम करता है; साथ ही साधना मात्र बाह्य वस्तु है ऐसा ख्याल रहता है । इस से गुस्सा उठता है । परन्तु यह कषाय आभ्यन्तर साधना को धक्का पहुंचाता है । ऐसे कषाय कुछ उठे, तो वहां सौम्यभाव या उपशम टिक नहीं सकता । मन वैराग्य से भावित नहीं होता । पीठ महापीठ मुनि अनुत्तर विमान वाले देवलोक में जाने वाले, और फिर ब्राह्मी सुन्दरी बनकर मोक्ष में जाने वाले जीव थे। तब भी वे बाहु सुबाहु (भरत बाहुबली के जीव) मुनि की भक्ति व वैयावच्च की प्रशंसा सहन न कर सके । ईर्ष्या माया अभिमान दिल में उठें, तो वैराग्य भाव को धक्का लगा, आर्त्तध्यान हुआ और नीचे के गुणस्थानक पर उतरे । अतः वैराग्य- भावित मन करने के लिए वैसे क्रोधादि भी होना नहीं चाहिये, उसे उठते ही दबा देना चाहिये । 1 इस तरह जगत के स्वभाव का ख्याल, निस्संगता, निर्भयता, निराशंसता तथा तथाविध कषाय-रहितता, इन पांचों का अभ्यास करने वाले का मन वैराग्य से भावित बनता है और वह ध्यान में सुनिश्चल बनता है । ध्यान से चलित करने वाले अज्ञानादि उपद्रव हैं, वस्तु स्वभाव का अज्ञान, आसक्ति, भय, फल- लालसा और छिपे हुए क्रोधादि कषाय । ये धर्मंध्यान को जागने ही नहीं देते अथवा जागे हुए को तोड़ देते हैं । ये इन विदित- जगत्स्वभाव, निस्संगता आदि से दूर होने से ध्यान - निश्चलता का आना स्वाभाविक होता है ।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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