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________________ ( ११३ ) अनादि के संस्कार वश क्रोध अभिमान आदि उठ खड़ा हो। तो यह भी ध्यान के लिए विघ्नरूप होगा । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि सुन्दर ध्यान करने वाले होने पर भी दूत का वचन सुन कर गुस्से हो गये तो धर्म ध्यान टूट कर रौद्रध्यान में चढते हुए सातवीं नरक तक के कर्म बांधने लगे | चंडरुद्राचार्य को स्वभाव - दोष से क्रोध चढ आता था । अतः पहले से ही इन कषाय-चोरों को पहचान कर उनके निग्रह का अभ्यास करना चाहिये, उनका त्याग करते रहना चाहिये । क्रोधादि से वैराग्य भावितता क्यों नहीं ? यद्यपि प्रस्तुत गाथा में 'क्रोधादि-रहितता' का स्पष्ट पद नहीं है, परन्तु 'निरासो य' शब्द में से 'य' याने 'च' का अर्थ उस प्रकार के क्रोधादि - रहितता समझने का टीकाकार महर्षि लिखते हैं । उस प्रकार के अप्रशस्त क्रोध लोभ, मान माया ईर्ष्या, हर्ष खेद आदि कषायों को रोकना चाहिये । क्योकि ये स्थिर वैराग्य- भावितता नहीं आने देते। इसका कारण यह है कि ये क्रोधादि किसी सांसारिक पदार्थं को महत्त्व देने से उठते हैं । और उसे महत्त्व दिया जाय ता उसके पति वैराग्य-भावितता दृढ़ कहां से रहेगी ? क्रोधादि दबाने के लिए क्या सोचना चाहिये ? ' (१) सांसारिक पदार्थ नाशवन्त है, एक दिन जाने वाला है और ये क्राध लाभ आदि किये तो उसके संस्कार सिर पर पड़ेंगे । तो नाशवन्त को महत्त्व देकर कायम के कुसंस्कार क्यों खड़े करु ? पुनः (२) ये क्राधादि तो आत्मा के विकार हैं । यदि धर्मसाधना से मुझे आत्मा को शुद्ध हो करना है तो विकारों का पोषण किसलिये करु ?' यहां इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जगत की चीजों के लिए तो नहीं, परन्तु साधना में अन्तराय करने वाली वस्तु या व्यक्ति की ओर भी गुस्सा उठता हो तो वह भी पसंद करने लायक
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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