SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ९० ) अजीव के गुणपर्याय के परमार्थ का विचार : अजीव में मुख्य द्रव्य पुद्गल है। जीव के सम्बन्ध में इस जड़ पुद्गल को बहुत सी वस्तुएँ आती हैं और जीव उसके अच्छे बुरे रूप रस आदि गुणों तथा उसके अमुक भाव व पर्याय देख कर उनमें मोहित हो जाता है और राग में या द्वंष में पड़ता है। वहां यदि उसके गुणपर्याय का मर्म सार जाना सोचा हो तो उससे मोहित होने का न हो। अनुकूल प्रतिकूल में ध्यान कैसे नहीं बिगड़े ? उदा० मूल्यवान हीरे की कीमत, चमक आदि देख कर जीव मोहित हो जाता है। परन्तु यदि उसका सार पकड़े कि, 'यह बहुत ही राग, मोह, ममता कराने वाला होने से चिकने कर्म तथा दुर्गति का सर्जन करने वाला है।' तो राग मोह आदि उतर जाय और इसीसे फिर कोई शुभ ध्यान के बीच में उसका हस्तक्षेप नहीं रहे ! वैसे ही प्रतिकूल वस्तुओं के अनिष्ट गुणों से घबरा कर द्वेष न कर के उसका सार रूप यह देखे कि 'ये अनिष्ट पदार्थ वैसे वैसे अशातावेदनीय आदि कर्म खपाने में सहायक है', तो भी चित्त की स्वस्थता रहे और ध्यान न बिगड़े। महात्माओं ने घोर उपसर्ग में यह सार पकड़ा कि 'यह शस्त्र-प्रयोग तो काया को काटेगा, छेदन करेगा या जलायेगा, पर आत्मा तथा उसके ज्ञानादि गुणों का जरा भी छेदन भेदन या दहन नहीं कर सकता। उलटे उसकी वेदना से तो आत्मा पर बद्ध कर्म क्रमशः उदय प्राप्त करते करते अवश्य क्षय होते जाते हैं । बाह्य शस्त्र वास्तव में तो आंतरिक कर्म की गांठ को काटता है। इसमें बुरा क्या है ?' इस तरह यदि सार पकड़ा तो ध्यानधारा शुक्ल ध्यान तक चढ गई। अन्यथा वह खण्डित हो जाती है।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy