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________________ ( ८७ ) क्योंकि तब मन को समझा लिया जाय कि 'इस श्रुताभ्यास के समय लू किससे बात कर रहा है ? शास्त्र रचयिता महान गणधर या आचार्य महाराज के साथ । तो बड़े के साथ बातें चालू हों उस समय दूसरे के साथ बातें नहीं हो सकतीं।' इस तरह समझाकर दूसरे तीसरे विचारों में जाते हए मन को रोका जा सकता है। इसका नाम मनोधारणा। ३. विशुद्धिः -नित्य ज्ञानाभ्यास तथा मनोधारणा करने पर भी यदि जिस सूत्र को पढ़ रहे हैं उसे अर्थ शुद्ध न पढ़े, तो शुद्ध ज्ञान भावना नहीं होगी। अतः उसके ज्ञान को विशेष विशेष शुद्धि करना आवश्यक है; वह ऐसा कि सूत्र स्वनामवत् परिचित हो जाय और अर्थ का हूबहू चित्र नजर समक्ष खड़ा हो जाय । फिर उसका आनन्द ही और हो जावेगा। मन उससे ऐसा ज्यादा भावित होकर उसमें जकड़ा हुआ रहेगा कि ध्यान के एकाग्र चिंतन के लिए सुन्दर अवस्था खड़ी हो जाय। 8. भवनिवेदः-ज्ञान भावना के लिए संसार पर चमकता हुआ वैराग्य (भवनिर्वेद) भी अत्यन्त जरूरी है । वह यदि नहीं होगा तो ससार पर राग रहेगा। इससे संसार का कोई वैभव सत्ता, सन्मान, मुलायमियत आदि मनको पकड़ लेगा। ज्ञान पढ़ेगा तो कदाचित ऐसे संसार हेतु के लिए, तो उसमें पवित्र शुद्ध ज्ञानभावना कहां से होगी ? अतः तीव्र भवनिर्वेद का अभ्यास जरूरी है। दूसरे यह भी कि जिन सम्यक शास्त्रों का ज्ञान लेने व रटने में आता है, उसमें तो मुख्यत: आत्म-तत्त्व की बातें होती हैं, रागादि दोषों को नष्ट करने का उपदेश होता है, तो वह हृदय में कब उतरे ? उससे दिल पिघल कर उन बातों से कब रंग जाय ? हृदय में भवनिवेद चमकता हो, जगमगाहट करता हो तभी। इसलिए भी भवनिर्वेद का अभ्यास आवश्यक है।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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