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________________ जैन सिद्धांत प्रकरण संग्रह. २३१ कर्मना संजोगथी अशुद्ध प्रणति छे ते जीवने विषयकषायना संजोगयी विभावना थाय छे. हवे जीव अने पुद्गलने विभाव छे, तेने दूर करीने जीव आपणा ज्ञानादिक गुणमां रमण करे ते स्वभाव धर्म अने प्रद्गलनो एक वर्ण, एक गंध, एक रस, बे फरसमां रमण थाय ते पुद्गलनो शुद्ध स्वभाव धर्म जाणवो. ए सिवाय बीजा चार द्रव्यमा स्वभाव धर्म छे पण विभाव धर्म नथी, ते चलण गुण, स्थिर गुण, अवकाश गुण, वर्तना गुण, ते पोतपोताना स्वभाबने छोडता नथी ते माटे शुद्ध स्वभाव धर्म छे. ए चार प्रकारनी धर्म जानिका कही. बीजी अधर्मजाग्रिका-ते संसारमा धन कुटुंब परिवारमा आसक्त थइ कुमाग आरंभादिक करवा तेनी रक्षाअन्यायथी करवी, तेना उपर सराग द्रष्टिथी अधर्म करवो ते अधर्म जाग्रिका जाणवी. त्रीजी सुदखु जाग्रिका ते सु कहतां भली, दखु कहेतां चतुराइवाळी जाग्रिका श्रावकने होय छे, केमके सम्यकज्ञान, दर्शन, सहित धन कुटुंबादिक तथा विषय कषायने खोटा जाणे छे,देशथी निवां छे, उदय भावथी उदासीनतापणे छे, त्रण मनोरथ चितवे छे, त सुदखु जाग्रिका जाणवी. इति त्रण जाग्रिका संपूर्ण. अवधि पद. श्री पन्नवणाजी सुत्र पद तत्रीसमे अवधि पदनो थोकडोचाल्यो तेमां प्रथम दश द्वार छे तेना नाम कहे छे:-भेदद्वार १, विषय द्वार २, संठाणद्वार ३, आभ्यंतर अने बाह्यद्वार ४, देश थकी अने सर्व यकी ५, अणुगामी ६, हायमान अने वर्धमान ७, अवठ्ठीया ८,
SR No.022129
Book TitleJain Siddhant Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherAjramar Jain Vidyashala
Publication Year1928
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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