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________________ जैन सिदाव प्रकरण संग्रह. १७९ हवे स्थिति कहे छ आवता भव परिहार विशुद्ध ३ साथे छठाण आश्री आगल्यारचारित्रनीज०बे वडियो. उपल्या २ थी अनंत गुणपल्यनी, उ०३३ सागरनी. परि- हीण. छेदोपस्था० सामायक०, हार विशुद्धनी ज० बे पल्यनी छेदो० परिहार विशुद्ध साथे छउ०१८ सागरनी, सूक्ष्म संपराय ठाण वडियो, उपल्या २ थी अजयाख्यात ए २ चारित्रनी जघ- नंत गुण हीण. हवे परिहार विशुद्ध न्य० उत्कृष्टी ३३ सागरनी. - सामा०, अने छेदोप० परिहार १४ हवे संजमठाण द्वार विशुद्ध साथे छठाण वडियो,उपला कहे छे आगल्या ३ चारित्रना | २ थीअनंत गुण हीण. हवे सुक्ष्म असंख्याता स्थानक, सूक्ष्म संप- | संपराय सामायक छेदोप० परिरायना असंख्याता स्थानक, अंत हार विशुद्धथी अनंत गुण अधिक मुं० काळ प्रमाणे समय २ प्रते | पण नो तुल्य. सूक्ष्म संपराय चारित्रनी विशुद्धिना विशेष भा- | सूक्ष्म संपराय साथे छठाणवडीयो, पथी ते असंख्य थाय अने जथा- | जो हिणो होय तो अनंत गुणख्यातनुं एकज स्थानक. हवे | हीणो, जो अधिको होय तो अअल्प बहुत्व सर्वथी थोडा जथा- नंत गुण अधिक, अने तुल्य पण ख्यातना स्थानक, तेथी सूक्ष्म | होय अने जथाख्यातथी अनंतगुण संपरायना असंख्यात गुणा, तेथी। हीण.जथाख्यात आगल्या४थी अ. परिहार विशुद्धना असंख्यात | नंत गुण अधिक.जथाख्यात जथा गुणा, तेथी सामा० ने छेदोप० । ख्यात साथे तुल्य. हवे अल्प बहुमाहोमांहि तुल्य नेअसंख्यातगुणा. त्व सर्वथी थोडा सामायक छेदो १५ हवे निकास द्वार कहे पस्थापनीकना ज० पर्यव यांहोछे पांचे चारित्रना अनंतापर्यव मांहि तुल्य, तेथी परिहार विशुभाणवा सामायक, छेदोप०, ने द्धना ज० पर्यव अनंतगुणा, तेथी
SR No.022129
Book TitleJain Siddhant Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherAjramar Jain Vidyashala
Publication Year1928
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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