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________________ ६६ ] तपः कुलकम् की प्राप्ति की थी वे बाहुबली महाराज हमारे दूरित - पाप को दूर करें ॥ २ ॥ थिरं पिथिरं वंक विउजु दुल्लहं पितह सुलहं । दुसज्यं पिसुसज्यं, तवेण संपज्जए कज्जं || 3. 11 तप के प्रभाव से अस्थिर कार्य भी स्थिर हो जाते हैं, वक्र कार्य भी सरल हो जाते हैं, दुर्लभ भी सुलभ हो जाता हैं और दुःसाध्य भी सुसाध्य बन जाता है ॥ ३ ॥ छट्ठ छट्ठे तवं, कुमाणो पढमगणहरो भयवं । अक्खीण महाणसीचो, सिरिगोयमसामियो जयउ || 8 || छट्ट का सतत तप करते हुए 'अक्षीण महानसी' नाम की महान् लब्धि को प्राप्त किया था ऐसे प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी महाराज जयवन्ता वर्त्ते ॥ ४ ॥ छज्जइ सणं कुमारो तवबल खेलाइलद्धिसंपन्नो ।
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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