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________________ दान महिमा गर्भितं दान कुलकम् [ ४६ धन सार्थवाह के भव में घी का दान उत्तम साधुओं को दिया गया था, इस कारण ऋषभदेव भगवान तीनों लोकों के पितामह - दादा हुए ||श करुणाई दिन्नदाणो, जम्मंतर गहि पुराण किरिश्राणो । तित्थयरचक्क रिद्धि, संपतो संतिनाहो वि ॥६॥ पीछे के दशमे भव में करुणा के कारण कपोत को अभयदान देने वाले तथा जन्म-जन्मान्तर में भी यही क्रिया अक्षुण्ण रखी ऐसे शान्तिनाथ भगवान् ने भी आखिरी भव में तीर्थङ्कर और चक्रवर्ती की ऋद्धि को प्राप्त किया || ६ || पंचसयसाहुभोयण दाणावज्जि सुपुराण पब्भारो 1 अच्छरिय चरित्र भरियो, भरो भावि जाश्रो 11911 पांच सौ साधुओं को भोजन लाकर के प्रदान करना तथा उसका पुण्य उपार्जन करना आश्चर्यजनक चरित्र का प्रतीक है । ऐसा भरत भरतक्षेत्र का नायक - चक्रवर्ती राजा हुआ था ||७||
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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