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४२ ] श्री संविग्न साधुयोग्यं नियम कुलकम्
संप्रति काल में जिन कल्प व्युच्छिन्न हुआ सा है फिर प्रतिमा कल्प भी प्रवर्तित नहीं है । संघयणादिक के नाश से शुद्ध स्थविर कल्प भी पाला नहीं जाता, फिर भी जो मुमुक्षु जीव इन नियमों की आराधना पूर्वक सम्यम् उपयुक्त चित्त से चारित्र पालन में प्रयत्न करे तो निश्चय ही जिनाज्ञा का आराधक हो सकता है ||४५ - ४६ ॥
ए ए सब्वे नियमा
जे सम्मं पालयंति वेरग्गा ।
तेसिं दिक्खा गहिया, संहला सिवसुह फलं देइ
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इन श्रेष्ठ नियमों को जो आत्मा से पाले, वैराग्य से वर्ते, आराधना करें तो उसकी ग्रहण की गई दीक्षा सफल होती है तथा शिव सुख के फल की प्राप्ति होती है ॥४७॥
॥ इति श्री संविज्ञ साधुयोग्यं नियम कुलकस्य सरलार्थः सरलार्थः समाप्तः ॥